लखनऊ: भारत की विविधता और धार्मिक सह-अस्तित्व की पहचान हमेशा इसकी सबसे बड़ी ताकत रही है। मगर हाल के वर्षों में कट्टरपंथी सलाफी-जिहादी विचारधारा की एक नई, सीमित और चिंताजनक चुनौती उभर के आयी है। सुरक्षा एजेंसियों और विशेषज्ञों के मुताबिक, यह विचारधारा भारत की सामाजिक एकता और राष्ट्रीय सुरक्षा, दोनों के लिए खतरा बन सकती है।
क्या है सलाफी-जिहादी विचारधारा?
सलाफी-जिहादी विचारधारा इस्लाम की एक कट्टर और गलत व्याख्या है जो इस्लाम को 1400 साल पीछे ले जाना चाहती है– जिसमें कोई बदलाव, कोई नई बात या कोई स्थानीय रिवाज पूरी तरह गलत है। इसमें शांति की कोई जगह नहीं, सिर्फ हिंसा और सख्त नियम हैं, और इसका मुख्य सपना पूरी दुनिया में एक इस्लामिक राज्य बनाना है जहाँ सिर्फ शरीयत कानून चले।
पहला नियम तौहीद का सख्त रूप है-सिर्फ अल्लाह की इबादत करो, लोकतंत्र, संविधान, राष्ट्रध्वज गलत हैं, मजार जाना या सूफी- संतों से दुआ मांगना शिर्क है, यानी कोई मध्यस्थता नहीं, न सरकार, न सूफी-संत, न देश।
दूसरा नियम बिदअत का विरोध है- 1400 साल बाद की कोई चीज पाप है, जैसे फोटो खींचना, टीवी देखना, संगीत सुनना या लड़कियों का स्कूल जाना, सब बंद होना चाहिए, मतलब दुनिया 7वीं सदी में रुक जाए।
तीसरा नियम तकफीर है- दूसरे मुसलमानों को काफिर घोषित करना, शिया, सूफी या भारत में रहकर वोट देने वाला मुसलमान काफिर, यानी आपस में भी जहर घोलती हैं ये विचारधारा।
चौथा नियम जिहाद- आम मुसलमानों के लिए जिहाद दिल की सफाई है लेकिन सलाफी-जिहादी विचारधारा स्कूल में बम, ट्रेन में धमाका या मंदिर पर गोलीबारी को जिहाद कहता है, मतलब हिंसा ही धर्म है।
पांचवां नियम ख़िलाफ़त का सपना- एक वैश्विक इस्लामिक राज्य, कोई चुनाव नहीं, महिलाओं के कोई अधिकार नहीं, कोई अल्पसंख्यक नहीं, सख्त शरिया कानून जैसे हाथ काटना या पत्थर मारना, मतलब दुनिया को एक तरह से जेल बना दो।
यह विचारधारा खतरनाक है क्योंकि समाज को बाँटती है, मुसलमानों के बीच दुश्मनी पैदा करती है, युवाओं को गुमराह कर बर्बाद करती है, शांति की जगह डर फैलाती है, और भारत जैसे देश में जहाँ सभी साथ रहते हैं, एकता को तोड़ने की कोशिश करती है। सलाफी-जिहादी विचारधारा इस्लाम नहीं है, यह इस्लाम का नाम लेकर हिंसा फैलाने वाली सोच है, एक वायरस है जो दिमाग को खराब करता है और समाज को बीमार, मुसलमानों इसे समझो, पहचानो और इससे दूर रहो।
विचारधारा की उत्पत्ति और विस्तार:
इस विचारधारा की जड़ें 18वीं सदी के सऊदी अरब में मानी जाती हैं, जब मुहम्मद इब्न अब्दुल वहाब ने एक आंदोलन चलाया, जिसमें उसने इस्लाम की “शुद्धता” पर जोर दिया और हर नई परंपरा (बिदअत) का विरोध किया। 20वीं सदी में, जब अरब देशों में तेल संपदा बढ़ी, तब इस विचारधारा को आर्थिक सहारा मिला और यह दुनिया के कई हिस्सों तक फैल गई।
1980 के दशक में अफगानिस्तान युद्ध के दौरान अमेरिका, पाकिस्तान और सऊदी अरब द्वारा “मॉडर्न जिहाद” के नाम पर दी गई ट्रेनिंग और फंडिंग ने इसे और मजबूत किया। इसके बाद अल-कायदा, तालिबान और हाल में आईएसआईएस (ISIS) जैसे संगठनों ने इसे अपने वैचारिक आधार के रूप में अपनाया।
भारत में विचारधारा का आगमन:
भारत में यह विचारधारा 1970 के दशक में गल्फ देशों से आने वाली फंडिंग और धार्मिक प्रभाव के माध्यम से दाखिल हुई। भारत की पारंपरिक सूफी-बरेलवी परंपरा का केंद्र हमेशा शांति, प्रेम और सहिष्णुता रही है। लेकिन विदेशी फंडिंग और कट्टरपंथी प्रचार के चलते कुछ इलाकों में देवबंदी और अहले हदीस विचारधाराओं के कट्टर रूप सामने आए।
खुफिया एजेंसियों के अनुसार, पाकिस्तान की आईएसआई ने इस विचारधारा का इस्तेमाल भारत विरोधी रणनीति के रूप में किया। कई आतंकी संगठनों जैसे लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और इंडियन मुजाहिदीन के वैचारिक सूत्र इसी सोच से जुड़े पाए गए हैं।
देवबंदी और अहले हदीस विचारधाराओं का स्वरूप:
देवबंदी विचारधारा, जो 19वीं सदी में भारत में ब्रिटिश शासन के विरोध में एक सुधार आंदोलन के रूप में शुरू हुई थी, बाद में इसके कुछ हिस्सों ने कठोर धार्मिक दृष्टिकोण अपनाया। भारत में हजारों मदरसे देवबंदी परंपरा का पालन करते हैं, जिनमें से कुछ शिक्षा और सामाजिक उत्थान के कार्य में लगे हैं, परंतु रिपोर्ट्स के मुताबिक, अधिकांश संस्थान वैचारिक कट्टरता से प्रभावित हुए।
दूसरी ओर, अहले हदीस विचारधारा सऊदी अरब की वहाबी सोच से प्रेरित मानी जाती है। रिपोर्टों के अनुसार, गल्फ फंडिंग के जरिए भारत में कई मस्जिदें और धार्मिक संस्थान स्थापित किए गए, जहाँ पारंपरिक सूफी या बरेलवी प्रथाओं की आलोचना की जाने लगी। कश्मीर, केरल और राजस्थान जैसे राज्यों में अहले हदीस संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जिससे स्थानीय धार्मिक माहौल में बदलाव देखा गया है।
फैलाव के प्रमुख माध्यम:
विशेषज्ञों और सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्टों के मुताबिक, यह विचारधारा भारत में कई माध्यमों से फैलायी जाती है:
a. विदेशी फंडिंग – गल्फ देशों और पाकिस्तान से मदरसों, मस्जिदों और संस्थानों को आर्थिक सहायता।
b. ऑनलाइन प्रचार – सोशल मीडिया, यूट्यूब, टेलीग्राम और टेलीग्राम चैनलों पर भावनात्मक वीडियो, राजनीतिक मुद्दे और धार्मिक कट्टरपंथ का प्रसार।
c. स्थानीय नेटवर्क – बेरोजगार या असंतुष्ट युवाओं को वैचारिक रूप से प्रभावित कर “न्याय” और “धर्म” के नाम पर आकर्षित करना।
d. विदेशी ट्रेनिंग और हैंडलिंग – पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) और अफगानिस्तान में ट्रेनिंग कैंप और ऑनलाइन कम्युनिकेशन के जरिए वैचारिक वर्चस्व बनाना।
भारत में प्रभाव:
हाल के वर्षों में कुछ आतंकी घटनाओं की जांच में सलाफी-जिहादी प्रभाव के संकेत मिले हैं। NIA और IB की रिपोर्टों में आतंकी हमलों में शामिल कुछ संदिग्धों के वैचारिक संपर्क इन नेटवर्कों से जुड़े पाए गए। केरल में भी कुछ युवाओं के आईएसआईएस से जुड़ने के मामले सामने आए, जिनमें कई ने गल्फ देशों में रहकर यह सोच अपनाई। हालाँकि सुरक्षा एजेंसियां स्पष्ट करती हैं कि यह प्रभाव बहुत सीमित है और अधिकांश भारतीय मुसलमान ऐसी विचारधाराओं को खारिज करते हैं।
सरकार और समाज की भूमिका:
भारत सरकार ने UAPA (Unlawful Activities Prevention Act), FCRA (Foreign Contribution Regulation Act) और मदरसा सुधार योजनाओं के जरिए इस तरह की फंडिंग और गतिविधियों पर निगरानी बढ़ाई है। कई राज्यों में धार्मिक संस्थानों के पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय एकता, संविधान और नागरिक मूल्यों को शामिल करने पर बल दिया गया है।
समाज स्तर पर भी धार्मिक नेताओं, सूफी संस्थानों और बरेलवी संगठनों ने कट्टरपंथ के खिलाफ आवाज उठाई है। विशेषज्ञों का कहना है कि शिक्षा, रोज़गार और संवाद इस समस्या के सबसे प्रभावी समाधान हैं।
भारत की धार्मिक परंपरा: शांति की नींव
भारत की इस्लामी परंपरा का मूल हमेशा सूफी और बरेलवी धाराओं पर आधारित रहा है – जहाँ मज़ार, कव्वाली, ईद-मिलाद और सामाजिक सहिष्णुता जैसे पहलू मुख्य हैं। यह परंपरा भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है, जो धर्म के नाम पर हिंसा या असहिष्णुता को अस्वीकार करती है।
इसी कारण विशेषज्ञ मानते हैं कि सलाफी-जिहादी विचारधारा भारत की सांस्कृतिक जड़ों से मेल नहीं खाती, और इसका मुकाबला केवल कानून से नहीं, बल्कि जागरूकता और सामाजिक एकता से ही संभव है।
निष्कर्ष:
भारत में सलाफी-जिहादी विचारधारा का प्रभाव सीमित है, लेकिन यह एक वैचारिक खतरा अवश्य है। यह न केवल देश की सुरक्षा के लिए बल्कि सामाजिक सौहार्द के लिए भी चुनौती है। सरकार, समाज और धार्मिक समुदाय – सभी को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि कट्टरपंथी सोच की जगह संवाद, शिक्षा और राष्ट्रहित की भावना को बढ़ावा मिले।
