दो अक्टूबर 2025 का दिन भारत के इतिहास में एक विशेष महत्व रखता है। इसी दिन विजयादशमी के पावन अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना के सौ वर्ष पूरे हो गए। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में इस संगठन की नींव रखी थी, जो आज दुनिया का सबसे बड़ा स्वैच्छिक संगठन बन चुका है। आरएसएस की यह शताब्दी सिर्फ एक जश्न नहीं, बल्कि एक संकल्प है। यह संगठन हमेशा से राष्ट्र निर्माण, हिंदू एकता और सामाजिक सेवा के प्रति समर्पित रहा है। लाखों स्वयंसेवक आज भी रोज शाखाओं में इकट्ठा होकर अनुशासन, सेवा और देशभक्ति की सीख लेते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ कहा है, जो व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण की दिशा में काम करता है। इस शताब्दी वर्ष में आरएसएस ने पूरे देश में कार्यक्रम आयोजित किए हैं, जिसमें हिंदू सम्मेलन, गांव स्तर पर पहुंच अभियान और वैश्विक स्तर पर संवाद शामिल हैं। यह यात्रा चुनौतियों से भरी रही, लेकिन स्वयंसेवकों की निस्वार्थ सेवा ने इसे मजबूत बनाया। आइए, इस अवसर पर आरएसएस के इतिहास, योगदान और भविष्य की झलक देखें। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कहानी हमें बताती है कि कैसे एक छोटा सा बीज विशाल वृक्ष बन गया।
आरएसएस की स्थापना और प्रारंभिक वर्ष
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कहानी 1925 से शुरू होती है। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, एक चिकित्सक और राष्ट्रवादी, ने महसूस किया कि देश को मजबूत बनाने के लिए हिंदू समाज को संगठित करना जरूरी है। उस समय भारत गुलामी की जंजीरों में था। सामाजिक विभाजन, जातिवाद और विदेशी शासन ने समाज को कमजोर कर दिया था। हेडगेवार जी ने सोचा कि शारीरिक, मानसिक और वैचारिक रूप से मजबूत व्यक्ति ही राष्ट्र का आधार बनेगा। विजयादशमी के दिन, जब रावण पर राम की जीत का प्रतीक मनाया जाता है, उन्होंने नागपुर के विजयनगर में पहली शाखा शुरू की। शुरू में सिर्फ 15 से 20 युवा इकट्ठा होते थे। वे शारीरिक व्यायाम, खेल और राष्ट्रभक्ति के भजन गाते। हेडगेवार जी का मानना था कि संघ कोई राजनीतिक दल नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संगठन है जो समाज को एक सूत्र में बांधेगा।
प्रारंभिक वर्षों में संघ ने छोटे छोटे कदम उठाए। 1926 में संगठन को आधिकारिक नाम मिला। हेडगेवार जी ने स्वयंसेवकों को प्रचारक बनाकर भेजा, जो गांव गांव जाकर शाखाएं स्थापित करते। 1930 तक संघ के 500 से ज्यादा शाखाएं हो गईं। लेकिन चुनौतियां भी आईं। ब्रिटिश सरकार ने इसे संदेह की नजर से देखा। फिर भी, स्वयंसेवक डटे रहे। हेडगेवार जी ने कहा था कि संघ का लक्ष्य हिंदू राष्ट्र का निर्माण है, जहां सबका कल्याण हो। उनकी मृत्यु 1940 में हुई, लेकिन उन्होंने एम.एस. गोलवलकर को उत्तराधिकारी बनाया। ये शुरुआती साल संघ के लिए नींव थे। स्वयंसेवकों ने बिना किसी दिखावे के सेवा का रास्ता अपनाया। आज जब हम 100 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहे हैं, तो ये यादें हमें याद दिलाती हैं कि मजबूत शुरुआत ही लंबी यात्रा की कुंजी है।
संघ के दूसरे सरसंघचालक: एम.एस. गोलवलकर का योगदान
एम.एस. गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी कहा जाता है, ने 1940 से 1973 तक संघ को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। हेडगेवार जी के बाद वे सरसंघचालक बने। उस समय भारत आजादी के करीब था, लेकिन विभाजन की आग लग रही थी। गोलवलकर जी ने संघ को एक परिवार की तरह मजबूत किया। उन्होंने ‘बंच ऑफ थॉट्स’ किताब लिखी, जिसमें हिंदुत्व की अवधारणा को स्पष्ट किया। उनका मानना था कि भारत हिंदू राष्ट्र है, जहां सभी धर्मों को जगह है, लेकिन सांस्कृतिक एकता जरूरी है। स्वयंसेवकों को उन्होंने अनुशासन और त्याग की शिक्षा दी।
गोलवलकर जी के नेतृत्व में संघ ने प्राकृतिक आपदाओं में मदद की। 1947 के विभाजन के दौरान लाखों शरणार्थियों की सेवा की। लेकिन 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा। गोलवलकर जी को जेल हुई। उन्होंने कहा, संघ हिंसा से दूर है, लेकिन राष्ट्रभक्ति से कभी पीछे नहीं हटेगा। एक साल बाद प्रतिबंध हटा। उसके बाद संघ तेजी से फैला। 1950 के दशक में शाखाओं की संख्या हजारों में पहुंच गई। गोलवलकर जी ने विदेशों में भी संघ की शाखाएं शुरू करवाईं। वे कहते थे कि व्यक्ति निर्माण ही राष्ट्र निर्माण है। स्वयंसेवक परिवार छोड़कर प्रचारक बनते, बिना वेतन के सेवा करते। उनकी मृत्यु के बाद भी उनका विचार आज प्रासंगिक है। शताब्दी वर्ष में गोलवलकर जी की ये सीख हमें सिखाती है कि कठिन समय में धैर्य और संगठन ही जीत दिलाता है। संघ आज उनके सपनों का फल है।
संघ पर लगे प्रतिबंध और स्वयंसेवकों की परीक्षा
आरएसएस का इतिहास प्रतिबंधों से भरा है, लेकिन हर बार यह और मजबूत होकर उभरा। पहला बड़ा झटका 1948 में आया। गांधी जी की हत्या के बाद सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। लाखों स्वयंसेवक प्रभावित हुए। सरसंघचालक गोलवलकर जी समेत सभी पर केस चले। लेकिन स्वयंसेवकों ने हार नहीं मानी। उन्होंने गुप्त रूप से शाखाएं चलाईं, सेवा कार्य जारी रखे। एक साल की जांच के बाद सरकारी रिपोर्ट में संघ को निर्दोष पाया गया। 1949 में प्रतिबंध हटा। गोलवलकर जी ने कहा, यह विजय सत्य की है।
दूसरा प्रतिबंध 1975 में इमरजेंसी के दौरान लगा। इंदिरा गांधी सरकार ने विपक्ष को कुचलने के लिए संघ को बैन किया। हजारों स्वयंसेवक जेल गए। जेल में वे भजन गाते, व्यायाम करते। बाहर स्वयंसेवक भूमिगत हो गए, लेकिन लोकतंत्र बचाने के लिए संघर्ष किया। जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने संघ की तारीफ की। 1977 में इमरजेंसी खत्म होते ही प्रतिबंध हटा। तीसरा बैन 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आया। दो साल तक संघ ने अदालतों में पैरवी की। 1993 में निर्दोष साबित होकर मुक्त हुआ। इन प्रतिबंधों ने स्वयंसेवकों की परीक्षा ली। वे कहते थे, जेल जाना शर्म नहीं, बल्कि गौरव है। आज शताब्दी वर्ष में ये किस्से हमें सिखाते हैं कि अन्याय के आगे झुकना नहीं, बल्कि सत्य का साथ देना चाहिए। संघ की यह लचक ही इसकी ताकत है।
सामाजिक सेवा और आपदा राहत में संघ का योगदान
आरएसएस की असली ताकत उसकी सेवा में है। राजनीति से दूर रहकर यह संगठन हमेशा जरूरतमंदों के पास पहुंचा। 1947 के विभाजन में स्वयंसेवकों ने शरणार्थियों को भोजन, कपड़े और आश्रय दिया। 1962 के चीन युद्ध में सेना की मदद की। 1971 के बांग्लादेश युद्ध में भी सेवा की। प्राकृतिक आपदाओं में तो संघ सबसे आगे रहा। 2001 के गुजरात भूकंप में स्वयंसेवकों ने गांवों में जाकर राहत पहुंचाई। 2004 के सुनामी में तटीय इलाकों में काम किया। 2013 की उत्तराखंड बाढ़ में हजारों को बचाया।
कोविड-19 महामारी में संघ ने कमाल कर दिखाया। 2020 में लॉकडाउन के दौरान मास्क, सैनिटाइजर और भोजन वितरित किए। लाखों प्रवासी मजदूरों को ट्रेनों में भेजा। सेवा भारती जैसे संगठनों ने अस्पताल चलाए। संघ का मानना है कि सेवा धर्म है। स्वयंसेवक बिना भेदभाव के सबकी मदद करते। मुस्लिम बहुल इलाकों में भी वे गए। शताब्दी वर्ष में पीएम मोदी ने कहा कि संघ राष्ट्र चेतना का प्रतीक है। ये कहानियां बताती हैं कि सच्ची सेवा ही समाज को जोड़ती है। आज जब दुनिया संकटों से जूझ रही है, संघ का मॉडल प्रेरणा देता है।
संगी परिवार: संघ की व्यापक पहुंच
आरएसएस अकेला संगठन नहीं, बल्कि संगी परिवार का केंद्र है। इस परिवार में भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे दर्जनों संगठन हैं। संघ इनका वैचारिक आधार है। भाजपा राजनीति में है, लेकिन संघ कभी चुनावी मैदान में नहीं उतरता। 1951 में दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूर संघ बनाया, जो श्रमिकों के हक के लिए लड़ता है। विद्यार्थी परिषद छात्रों को संगठित करती है। विश्व हिंदू परिषद धार्मिक एकता पर जोर देती है।
संगी परिवार ने शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण में काम किया। विद्या भारती स्कूल चलाती है। वनवासी कल्याण आश्रम आदिवासियों की सेवा करता है। 1984 के सिख विरोधी दंगों में स्वयंसेवकों ने सिखों को बचाया। राम जन्मभूमि आंदोलन में भी भूमिका रही। लेकिन संघ हमेशा अहिंसा और संवाद पर जोर देता है। शताब्दी वर्ष में संगी परिवार ने एक लाख से ज्यादा सम्मेलन आयोजित किए। पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद मुख्य अतिथि बने। यह परिवार भारत को मजबूत बनाने का सपना देखता है। स्वयंसेवक कहते हैं, हमारा काम समाज को एक परिवार बनाना है। ये प्रयास हमें दिखाते हैं कि एकता में ही शक्ति है।
वैचारिक आधार: हिंदुत्व और राष्ट्रवाद
आरएसएस का वैचारिक आधार हिंदुत्व है। विनायक दामोदर सावरकर और गोलवलकर जी ने इसे परिभाषित किया। हिंदुत्व का मतलब है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, जहां भारत की आत्मा हिंदू है। लेकिन यह सभी को अपनाने वाला है। मुसलमान, ईसाई भी हिंदू संस्कृति का हिस्सा हैं, अगर वे भारत देश से प्यार करें। संघ कहता है, भारत हमेशा से हिंदू राष्ट्र रहा है। इसका लक्ष्य जाति भेद मिटाना, महिला सशक्तिकरण और पर्यावरण संरक्षण है।
स्वयंसेवक रोज शाखा में प्रार्थना करते, जो हिंदू मूल्यों पर आधारित है। लेकिन संघ धर्मांतरण या भेदभाव के खिलाफ है। मोहन भागवत जी कहते हैं, हिंदू समाज अनुशासित और मजबूत बने। शताब्दी वर्ष में भागवत जी का भाषण सुना गया, जिसमें उन्होंने उपनिवेशी मानसिकता से मुक्ति की बात की। संघ का राष्ट्रवाद समावेशी है। यह विचार आज भी प्रासंगिक है, जब दुनिया ध्रुवीकरण से जूझ रही है। हिंदुत्व सेवा और एकता सिखाता है।
100 वर्ष पूर्ण होने पर उत्सव और योजनाएं
2025 की विजयादशमी पर आरएसएस ने शताब्दी वर्ष की शुरुआत की। नागपुर के रेशिमबाग मैदान में भव्य कार्यक्रम हुआ। मोहन भागवत जी ने संबोधन दिया। पीएम मोदी ने 100 रुपये का सिक्का और डाक टिकट जारी किया, जिसमें भारत माता की छवि है। पूरे देश में मार्च पास्ट हुए। दिल्ली में स्वयंसेवकों ने रैलियां निकालीं। अगस्त से ही कार्यक्रम शुरू हो गए। 26 अगस्त से विज्ञान भवन में ‘संग यात्रा के 100 वर्ष: नई दिशाएं’ सम्मेलन चला।
आरएसएस ने एक लाख से ज्यादा सभाएं आयोजित कीं। गांव स्तर पर घर घर पहुंच अभियान चला। 1500 हिंदू सम्मेलन हुए। वैश्विक स्तर पर 18 राजधानियों में कार्यक्रम। मुस्लिम समुदाय से संवाद किया। लक्ष्य हर ब्लॉक में शाखा पहुंचाना। स्वयंसेवकों ने प्रशिक्षण लिया, जिसमें सामाजिक सद्भाव, मातृभाषा और पर्यावरण पर जोर। अगले वर्ष तक यह अभियान चलेगा। भागवत जी ने कहा, यह जश्न नहीं, संकल्प है। विकसित भारत 2047 के लिए संघ का योगदान बढ़ेगा। ये योजनाएं दिखाती हैं कि आरएसएस भविष्य की ओर बढ़ रहा है।
भविष्य की दृष्टि: विकसित भारत की ओर
आरएसएस की शताब्दी सिर्फ अतीत की याद नहीं, बल्कि भविष्य का खाका है। संगठन का सपना एक ऐसा भारत जहां हर नागरिक गौरवान्वित हो। मोहन भागवत जी कहते हैं, उपनिवेशी मानसिकता से मुक्त होकर स्वदेशी पर जोर दें। स्वयंसेवक पर्यावरण, शिक्षा और स्वास्थ्य में योगदान देंगे। लक्ष्य 2047 तक विकसित भारत बनाना। संघ कहता है, नागरिक कर्तव्य निभाओ। युवाओं को संगठित करो। वैश्विक स्तर पर भारत की भूमिका मजबूत करो।
शताब्दी वर्ष में संघ ने 10 हजार नई शाखाएं जोड़ीं। अब 83 हजार से ज्यादा शाखाएं हैं। चार लाख सदस्य सक्रिय। भविष्य में संघ समाज को एकजुट करेगा। जाति भेद मिटाएगा, महिला सशक्तिकरण बढ़ाएगा। भागवत जी का संदेश है, हिंदू समाज मजबूत बने। यह दृष्टि हमें प्रेरित करती है कि सेवा से ही राष्ट्र बनेगा। आरएसएस का सफर जारी रहेगा।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: आरएसएस की स्थापना कब हुई थी?
उत्तर: आरएसएस की स्थापना 27 सितंबर 1925 को डॉ. केशव बलिराम हedgewar ने की, लेकिन विजयादशमी को स्थापना दिवस मनाया जाता है।
प्रश्न 2: आरएसएस का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर: व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण, हिंदू समाज को संगठित करना और सांस्कृतिक एकता लाना।
प्रश्न 3: आरएसएस पर कितने प्रतिबंध लगे?
उत्तर: तीन बार, 1948, 1975 और 1992 में, लेकिन हर बार निर्दोष साबित होकर मुक्त हुआ।
प्रश्न 4: शताब्दी वर्ष में क्या कार्यक्रम हुए?
उत्तर: हिंदू सम्मेलन, मार्च पास्ट, वैश्विक कार्यक्रम और घर घर पहुंच अभियान।
प्रश्न 5: आरएसएस का संगी परिवार क्या है?
उत्तर: भाजपा, विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों का नेटवर्क, जो समाज के हर क्षेत्र में काम करते हैं।
